शनिवार, अक्तूबर 09, 2021

दलित बस्‍ती में ही सफाई करने क्‍यों पहुंच जाते हैं नेता...


बीजेपी हो या कांग्रेस या आम आदमी पार्टी सभी अपने सोच से सामंती व्‍यवस्‍था के पोषक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वॉड्रा के झाड़ू लगाने पर यूपी के सीएम योगी यह कभी नहीं कहते कि प्रियंका उसी लायक है। और प्रियंका भी जवाब में कभी नहीं कहती कि इससे दलित और महिलाओं का अपमान हुआ है। मतलब यूपी के सीएम योगी आदित्‍यनाथ मानते हैं कि झाड़ू लगाना निकृष्‍ट कार्य है और प्रियंका मानती है कि यह काम सिर्फ दलित और महिलाएं ही करती हैं। एक सीएम सोच से समानता के खिलाफ है दूसरी महिला नेत्री व्‍यवहार से भी इसके खिलाफ है।


आजादी के आंदोलन के समय महात्‍मा गांधी भी दलितों की बस्‍ती में सफाई कार्य करने पहुंच जाते थें। तर्क ये दिया जाता है कि समाज में छूआछूत चरम पर था और गांधी जी इसके खिलाफ थे। वे आश्रम में भी अपना सारा काम खुद ही किया करते थें। गांधी जी का यह व्‍यवहार एक पॉलिटिकल सिम्‍बल बन गया और विरासत में कांग्रेस की झोली में आ गया। कालान्‍तर में गांधी पर दूसरी पार्टियां भी हक जताने लगे तो दलित बस्‍ती में श्रमदान का अनुष्‍ठान वे भी करने लगे।

अंग्रेजों की गुलामी से भारत को स्‍वतंत्र हुए 70 वर्ष बीत गए लेकिन दलित बस्‍ती में सफाई का अनुष्‍ठान बदस्‍तूर जारी है। देश में 21वीं सदी में हुए सबसे बड़े आंदोलन जिससे दिल्‍ली में एक नई पार्टी का जन्‍म हुआ, और जब पॉलिटिकल पार्टी कर श्रीगणेश हुआ तो उसने भी झाड़ू को ही अपना सिम्‍बल बनाया और दलित बस्‍ती में ही पारंपरिक अनुष्‍ठान कर सफर की शुरूआत की। यहां बात दिल्‍ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की हो रही है। 
 

लोगों को लगा होगा कि दिल्‍ली में एक नई पार्टी का जन्‍म हुआ है तो वह वैचारिक रूप से सामंती सोच और असमानता के खिलाफ होगी लेकिन व्‍यवहार से यह पार्टी भी दूसरी पार्टियों की तरह ही निकली। ये सभी पार्टियां यह मानकर चलती है कि देश में कही गंदगी बची है तो वह वाल्‍मीकि समुदाय की बस्‍ती में होगी, दलित बस्‍ती में ही होगी। कभी यह ख्‍याल नहीं आया होगा कि गंदगी पांडे टोला, मिश्रा टोला में भी संभव है। क्‍योंकि यह मानकर चल रहे हैं कि वो समृद्ध हैं (EWS का कंसेप्‍ट नया है) तो स्‍वभाविक रूप से वहां सफाई तो होगी ही। इसलिए किसी नेता या राजनीतिक दल को कभी पांडे टोला या मिश्रा टोला का ख्‍याल नहीं आया।

देश को स्‍वतंत्र हुए बेशक सात दशक बीत गए लेकिन जब सफाई की बात आती है तो सोच में अभी दलित बस्‍ती और महिलाएं ही है। देखा जाए तो राजनीतिक दलों की यात्रा महात्‍मा गांधी से निकलती है और दलित बस्‍ती में जाकर समा जाती है। दलित बस्‍ती जैसे गया की कोई फल्गु नदी हो और सभी राजनीतिक दल अपनी सोच का तर्पण वहां करके मुक्ति पाना चाहते हों।

मंगलवार, अगस्त 18, 2020

सारी दार्शनिकता श्रीकृष्‍ण से शुरू होकर उन्‍हीं में समाप्‍त हो जाती है!

यह देश, यहां की मिट्टी, यहां के लोग अपने आप में अनगिनत आश्‍चर्यों से भरे हुए हैं. हजारों साल पहले कही गई बातों, दिए गए उपदेश पीढ़ी दर पीढ़ी से गुजरते हुए आज जन-जन में व्‍याप्‍त हो गया है. देश के दर्शनशास्त्रियों और विचारकों को पढ़ते हुए कई बार लगता है इन लोगों ने हजारों साल पहले कही गई बातों को अपने तरीके से उसी बात को लिखा है. अर्थात् मूल शब्‍द वही हैं लेकिन उसकी व्‍याख्‍या अभी के अनुसार की गई है. और वह व्‍याख्‍या अतीत की कही गई बातों की पुनरावृति ही है. स्‍वामी तुलसी दास ने जिस रूप की व्‍याख्‍या अपनी हरेक रचना में करते रहे उसी की व्‍याख्‍या कबीर दास अलग तरीके से अपनी रचनाओं में करते नजर आते हैं. सुरदास की भी व्‍याख्‍या इससे अलग नहीं है. 

इसका एक उदाहरण  देश के कवि हृदय पूर्व प्रधानमंत्री स्‍व. अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता में देख सकते हैं. 

उन्‍होंने अपने देश भारत की वंदना करते हुए जो लिखा, उस कविता को यहां लिख रहा हूं और फिर योगेश्‍वर श्रीकृष्‍ण की एक बात को भी लिखूंगा. कबीर दास ने किस तरीके से उस विराट रूप को कहा है वह भी आश्‍चर्य से भर देने वाला है. चाहे किसी की भी रचना हो, कई बार लगता है कि ये सभी एक ही बात अपने अपने तरीके से कह रहे हैं. पहले भारत भूमि की वंदना में लिखे गए स्‍व. अटल बिहारी वाजपेयी की यह कविता... 



भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,

जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।

हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,

पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।

पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।

कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।

यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,

यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।

इसका कंकर-कंकर शंकर है,

इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।

हम जियेंगे तो इसके लिये

मरेंगे तो इसके लिये।


भगवान श्रीकृष्‍ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में उपदेश देते हुए कहा था... 


मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।


अर्थात् 

''हे धनंजय! मुझसे परे अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है. यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है.''

किसी कवि की व्‍याख्‍या इस देश के लिए, यहां के कण कण के लिए कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्‍ण के दिए गए उपदेश की वर्तमान समय में की गई व्‍याख्‍या ही तो है. श्रीकृष्‍ण जैसे कुछ शब्‍दों में सारी व्‍यापकता को समाहित कर देते हैं वैसी व्‍यापकता साधारण मनुष्‍य में हो भी नहीं सकती. वह ऐसा लिख भी नहीं सकता. 14वींं शताब्‍द‍ि में जन्‍में कबीर भी जब कहते हैं  तो ऐसा ही कहते हैं. वो भी उस असाधारण मानव की व्‍याख्‍या करने में खुद को सक्षम नहीं मानते हैं. उनकी यह पंक्ति देखिए... 

सात समुंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।

धरनी सब कागद करौं, (तऊ) हरि गुन लिखा न जाइ॥

अर्थात् 

''यदि मैं इन सातों समंदर को अपनी लेखनी की स्याही की तरह और इस धरती को एक कागज़ की तरह प्रयोग करूं फिर भी श्री हरि के गुणों को लिखा जाना सम्भव नहीं है.''

श्रीमद्भगवद्गीता में जब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि वही सबकुछ है और उसी में सबकुछ समाया हुआ है तो इसी बात को कबीर अपने तरीके से उस विराट रूप की व्‍याख्‍या कर जाते हैं.  

इस भूमि की दार्शनिकता भगवान कृष्‍ण का ही अंश है. यहां की भाषा उनकी भाषा का ही विस्‍तार है. यहां का प्‍यार उनके प्‍यार का ही रूप है. ऐसा कुछ भी नहीं जो उनसे अलग है, उनकी सोच उनके दर्शन से अलग है. रोम-रोम में राम और कण-कण में शंकर की अवधारणा वस्‍तुत: वही हैं. सबमें और सभी जगह व्‍याप्‍त. हजारों साल पहले कहे गए उनके शब्‍दों का‍ विस्‍तार इस भूमि के वासियों में विस्‍तार पा गया है. कण कण में व्‍याप्‍त हो गया. हममें आपमें सबमें समा गया.

पूर्व प्रधानमंत्री स्‍व. अटल जी को याद करते हुए उनकी रचना को पढ़ा था और आज योगेश्‍वर श्रीकृष्‍ण के उपदेश को पढ़ते हुए दो पंक्ति लिखने का लोभ आ गया. सोचा इसे बहाने कुछ व्‍यक्तित्‍व को याद कर लूं जो हमें समय-समय पर राह दिखा जाते हैं. जीवन के तमाम क्षणों में आनंद का स्रोत, उसका कारण और जीवन को सार्थक एवं  सामर्थवान बनाने का हौसला दे जाते हैं. 

जय श्रीकृष्‍ण!  

शनिवार, फ़रवरी 27, 2016

उम्मीद की तरह, सवालों का जिंदा रहना जरूरी है...

अपनी अभिव्यक्त‍ि के लिए विचारों की प्लास्ट‍िक सर्जरी करवाने वाले और स्वघोषि‍त प्रतिभा संपन्न जो मुट्ठी में विद्रोह का बीज लिए घूमते रहते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि प्रत्येक सृजन के लिए विनाश का होना जरूरी नहीं है. दीवार होती आजादी से वो तंग आ चुके हैं लेकिन वो भी एक नई दीवार खड़ी करना चाहते हैं. जाहिर है आजादी की नई दीवार. गुलाम होते ख्यालों के बीच नई किस्म की गुलामी लाना चाहते हैं.

शोर के बीच बसे शहर में जब शांति की जगह मिलने लग जाए तो अटपटा लगता ही है. कार्य की प्रकृति को समझने की जगह कहां बचती है जब आप किसी और रंग में रंगे हों. शांति का भर जाना मुर्दों की पहचान मानने लगे तो फिर जिंदा रहने की शर्त क्या हो, यह सोचना होगा. सवाल करना होगा. पहले खुद से ही. दूसरे तो दूसरे ही होते हैं. पहले के बाद आते हैं. पहले खुद को समझना होगा. इस समझने की प्रक्रिया में यह भी मुमकिन है कि कुछ बूढ़े सवाल मर जाए, कुछ नये सवाल पैदा हों. क्योंकि कुछ सीखने के लिए सवालों का पैदा होना जरूरी है, उसका जिंदा रहना जरूरी है.

हम अक्सर डस्टबीन बनने को तैयार रहते हैं क्योंकि हम ऐसे ही है. अच्छे ख्यालों पर भरोसा हो न हो बुरे पर तो कर ही लेते हैं. फिर कोसने को तैयार रहते हैं बिना चीजों को समझे अपनी संतुष्ट‍ि के लिए. खुद की संतुष्टि‍ बड़ी चीज है. लबो की आजादी के बीच पता नहीं, हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि ऐसी कितनी परतें हमें खुद में समा लेने के लिए तैयार रहती हैं और हम खुले रहते हैं अपने ही बनाई धारणाओं और विचारों के बंद दरवाजों में. ऐसे में नई चीजें कहां दिखाई देने वाली. क्या यह संभव है जब हम अपने लबो को खोलें तो निकलें कुछ जिंदा सपनें? बंद मुट्ठी को खोले तो गिरे कुछ ऐसे बीज जो फलदार वृक्ष बने?

हालांकि यह सोच जंगल में छोड़ देने वाली एक सड़क जैसी ही है फिर भी उम्मीद बनाएं रखने में क्या बुराई है.

सोमवार, अगस्त 19, 2013

समझदारों का गीत

गोरख पाण्‍डेय की डायरी पढ़ने को मिला. उनकी कविता, 'समझदारों का गीत' काफी अलग है... 

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।

- गोरख पाण्डेय

गुरुवार, अप्रैल 25, 2013

जीत के लिए क्‍या जरूरी है?

भारतीय सेना चीन की सेना के सामने टिक पाएगी या हमें एक बार फिर 1962 देखना होगा?

जीत के लिए क्‍या जरूरी है?
कुशल सेनापति? कारगर रणनीति? आधुनिक सोच? परिस्थितियों का सही विश्‍लेषण? जीत की जिद? स्‍वयं का मूल्‍यांकन? दुश्‍मन का आकलन?

इनमें हमारे पास क्‍या है? अगर हमारे पास उपरोक्‍त सभी सवालों का ईमानदार जवाब है तो हम जीत सकते हैं. केवल जोश और बयान देने भर से कुछ नहीं होने वाला. उदाहरण कई हैं...

1. विश्व का सर्वाधिक कुशल सेनापति नेपोलियन अपनी जिद में रूस के जार की बात भूल गया. रूस के जार का कथन, 'मेरे दो सेनापति, जनवरी और फरवरी, मुझे कभी धोखा नहीं देते' कोई हल्‍की बात नहीं थी. नेपोलियन इन बातों पर ध्‍यान नहीं दिया, दुश्‍मन का मूल्‍यांकन करने और परिस्थितियों को समझने में चूक गया और जिसका परिणाम उसे सेना की भीषण तबाही और शर्मनाक वापसी के रूप में चुकानी पड़ी. नेपोलियन एक कारगर रणनीति बनाने वाला तथा समय से आगे की सोच रखने वाला, जोशीला और जीत की जिद पर सवार कई सफल अभियानों को अंजाम देने वाला एक कुशल सेनापति था. लेकिन परिस्थितियों का और स्‍वयं का सही आकलन नहीं कर पाया. और इस तरह हरदम जीतने वाला सर्वाधिक कुशल सेनापति हार गया.

2. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भी हिटलर की जिद ने अपनी सेना को रूसी सर्दी में तबाह कर दिया. हिटलर भी परिस्थितियों का सही मूल्‍यांकन नहीं कर पाया और मात खा गया. पराजय के रूप में परिणाम इतिहास में दर्ज है.

गुरुवार, जनवरी 10, 2013

विश्‍वास दिलाने के तरीके की तलाश...

हमारे पास अग्नि और पृथ्‍वी मिसाइल है... संचार के सारे उपकरण है... हमारा देश आने वाले समय में चांद पर कदम रखने की तैयारी कर रहा है... लेकिन हम अपने सेना के परिवार को और देश की जनता को यह विश्‍वास दिलाने की कोशिश करने का तरीका ढ़ूढ़ रहे हैं ताकि उन्‍हें विश्‍वास हो सके कि हम चुप नहीं हैं... हम अपने देश के खिलाफ होने वाले किसी भी हमले को सख्‍ती से निपट सकते हैं... अब और कोई कालिया का परिवार कोर्ट नहीं जाएगा, किसी शहीद सुधाकर की शरीर छलनी नहीं हो पाएगी और ना ही किसी शहीद हेमराज के सिर को कोई दूसरे देश के सैनिक या दूसरे देश के सैनिक समर्थित आतंकवादी काटकर अपने साथ ले जाएंगे... भरोसा है हमारे हुक्‍मरान विश्‍वास दिलाने का यह तरीका इजाद कर लेंगे. 

मंगलवार, नवंबर 06, 2012

BJP के लिए सबसे ज्‍यादा खतरनाक कौन, जिन्‍ना का जिन्‍न या दाउद का IQ

सवाल खतरनाक से हो चले हैं. खतरा सवाल पूछने वालों पर भी मंडराने लगा है और इसका उदाहरण हाल ही में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में भी देखने को मिला था. खैर यहां बात हो रही है बीजेपी की और सवाल यह कि बीजेपी के लिए सबसे ज्‍यादा खतरनाक कौन है, जिन्‍ना का जीन या दाउद का आईक्‍यू?


जिन्‍ना का जिन्‍न जिस तरीके से बीजेपी के दो वरिष्‍ठ नेताओं को पार्टी के भीतर आलोचना झेलने को मजबूर कर दिया था ठीक वैसी ही स्थिति पार्टी के वर्तमान अध्‍यक्ष नितिन गडकरी के कुख्‍यात अपराधी दाऊद इब्राहिम वाले बयान पर होते जा रही है. पार्टी के भीतर कई वरिष्‍ठ नेता गडकरी से इस्‍तीफे की मांग कर रहे हैं. इन नेताओं में यशवंत सिन्‍हा, जसवंत सिंह, गुरूमूर्ति शामिल हैं.

दूसरी ओर राम जेठमलानी ने साफ कहा है कि नितिन गडकरी को तत्‍काल अपने पद से इस्‍तीफा दे देना चाहिए. जेठमलानी ने कहा कि इस्‍तीफा दे देने से काई दोषी नहीं हो जाता. उन्‍होंने कहा कि गडकरी को अपने पद से इस्‍तीफा देकर जांच का सामना करना चाहिए. उनका पद पर बने रहना पार्टी के हित में नहीं है. इससे पहले महेश जेठमलानी ने भी गडकरी के विरोध में राष्‍ट्रीय कार्यकारणी से इस्‍तीफा दे दिया था.

बीजेपी के वरिष्‍ठ नेता जसवंत सिंह भी जिन्‍ना पर लिखे अपने किताब के कारण पार्टी से निकाल दिए गए थें. उनका पार्टी से निष्‍कासन उनके पुस्तक-विमोचन के 26 घंटे के अंदर ही हो गया था. जिस समय जसवंत सिंह को पार्टी से निकाला गया था उस समय लालकृष्ण आडवाणी संसदीय बोर्ड के सबसे वरिष्ठ सदस्य थें. इससे पहले आडवाणी जिन्‍ना पर दिए गए अपने बयान को लेकर अपना अध्‍यक्ष पद गवां चुके थें.

वर्ष 2005 में पाकिस्‍तान यात्रा के दौरान बीजेपी के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष लालकृष्‍ण आडवाणी द्वारा जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताए जाने के बाद अध्यक्ष पद छोड़ने को विवश होना पड़ा था. हालांकि आडवाणी ने अपने बयान के पक्ष में पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में 11 अगस्त 1947 को दिये गये जिन्ना के प्रसिद्ध भाषण का हवाला दिया था जिसमे उन्होंने कहा था कि नये राष्ट्र पाकिस्तान में अब न कोई हिन्दू होगा और न मुसलमान. सभी पाकिस्तानी होंगे और राज्य सभी धर्मावलम्बियों से समान व्यवहार करेगा. वैसे यह अलग बात है कि जिन्ना की इस सलाह पर पाकिस्तानी हुक्मरानों ने कभी अमल नहीं किया.

अब यह देखना दिलचस्‍प होगा कि बीजेपी के वर्तमान अध्‍यक्ष नितिन गडकरी दाऊद इब्राहिम को लेकर दिए गए अपने बयान के बाद कितने समय तक पार्टी के अध्‍यक्ष पद पर बने रहते हैं.

दलित बस्‍ती में ही सफाई करने क्‍यों पहुंच जाते हैं नेता...

बीजेपी हो या कांग्रेस या आम आदमी पार्टी सभी अपने सोच से सामंती व्‍यवस्‍था के पोषक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वॉड...