एक और बम धमाका, एक और शोक संदेश, एक और मुआवजे की घोषणा... बस यही दस्तूर बन गया है. जनता के जिम्मे जान देने का काम और नेताओं के जिम्मे बयान देने का. और कितने जान देने के बाद इस बात की गारंटी हमारी सरकार हमें देगी कि अब ऐसी घटना को हम नहीं होने देंगे? ऐसे कितने सिपाहियों को जान देने के बाद हमारी सरकार को इस बात का इल्म होगा कि दोषी को सजा दे देनी चाहिए? नेताओं की रस्म अदायगी आखिर कब तक? जान देने का सिलसिला आखिर कब तक? पहले मुंबई और अब दिल्ली, आखिर कब तक?
देश के युवराज की संज्ञा से नवाजे गए माननीय राहुल गांधी का कुछ दिन पहले यह बयान आया था जिसमें यह कहा गया था कि हम सभी आतंकी हमलों को नहीं रोक सकते. सरकार कहती है हम महंगाई और भ्रष्टाचार नहीं रोक सकते. सरकार के मंत्री जब बयान देते हैं तो उनके बयानों में ठोस बात कम वादा ज्यादा होता है. अगर यह सरकार कुछ कर नहीं सकती तो क्यों बनी हुई है? क्या घोटाला को छोड़कर और कुछ करने में यह सरकार सक्षम नहीं है?
जनता टैक्स देती है क्या नेताओं को लूट कर अपना घर बनाने के लिए? जनता टैक्स देती है क्या कोरी बातें सुनने के लिए? जनता टैक्स देती है क्या अपने जान से हाथ धोने के लिए? जनता टैक्स देती है क्या मरने के बाद आश्रितों को मुआवजा देने के लिए?
संसद की सर्वोच्चता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता... ऐसा कहना है हमारे सांसदों का. तो क्या महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता, आतंकवाद से पीडि़त जनता इन सांसदों की पूजा करें या उस चौखट की पूजा करें और आशा भरी नजरों से अपने ही द्वारा चुने गए उन सांसदों की ओर देखें जो आतंकवादियों को फांसी की सजा से बचाने की वकालत कर रहे हैं? क्या वैसे सांसदों से न्याय और सुरक्षा की उम्मीद करें जो वोट की राजनीति के कारण ठोस निर्णय लेने में अक्षम है?
ऐसा लगने लगा है जैसे चुने हुए सांसद भारत के भाग्य विधाता बन गए हैं इसमें जनता कहीं नहीं है, इसलिए उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी की नहीं है.
गुरुवार, सितंबर 08, 2011
गुरुवार, अगस्त 11, 2011
(जन)लोकपाल और आरक्षण के बीच 'समझदारों का गीत'
देश में (जन)लोकपाल पर बहस छिड़ी हुई है. बॉलीवुड में प्रकाश झा अपनी फिल्म आरक्षण को लेकर चर्चा में हैं तो महंगाई और भ्रष्टाचार के बीच जनता की स्थिति दयनीय बनी हुई है. ढ़ेर सारे मुद्दे और ढ़ेर सारे सवाल सरकार और जनता दोनों के पास है.
खैर सबकी अपनी समस्या और अपना दर्द है. ऐसे में आज काफी समय बाद फिर से गोरख पांडे जी की कुछ कविताओं को पढ़ने का मौका मिला. उनमें से एक कविता को यहां दे रहा हूं, आप भी पढ़ें:
समझदारों का गीत
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
-गोरख पांडे
खैर सबकी अपनी समस्या और अपना दर्द है. ऐसे में आज काफी समय बाद फिर से गोरख पांडे जी की कुछ कविताओं को पढ़ने का मौका मिला. उनमें से एक कविता को यहां दे रहा हूं, आप भी पढ़ें:
समझदारों का गीत
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
-गोरख पांडे
रविवार, अगस्त 07, 2011
ईमान बेचते चलो, तुम भी महलों में रह लोगे...
देश के दोनों बड़े दल भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगा रहे हैं. एक दल को इस बात का गुमान है कि उसे जनता ने सत्ता दिया है शासन करने के लिए. अब जनता को यह हक नहीं बनता है कि वह कुछ कहे. जो जनता कुछ कहना चाहती है उसके लिए नसीहत यह है कि वह पहले जनता के बीच से चुन कर आए. सिर्फ जनता होने से काम नहीं चलेगा. जनता को कुछ भी पूछने या जानने का हक नहीं है. जनता एक बार अपने प्रतिनिधि को निर्वाचित कर दी तो अगले पांच वर्षों तक के लिए वह अपने मुंह पर ताला जड़ ले. अब वह सिर्फ सह सकती है लेकिन न तो सवाल कर सकती है और ना ही आवाज.
दूसरी पार्टी जो विपक्ष में बैठी है उसको इस बात का गुमान है कि सवाल पूछने का हक सिर्फ मेरे पास है. लेकिन मैं अपनी मर्जी से ही कुछ करुंगा. मैं जनता के प्रति जबावदेह नहीं हूं. वैसे जनता मेरा क्या कर लेगी... अगर मैं भ्रष्टाचार के मामले में सत्ता पक्ष का साथ देता हूं तो मुझे भी लाभ मिलेगा.
मेरे विचार से कुछ ऐसा ही खेल खेला जा रहा है संसद में. कांग्रेस कर्नाटक पर चुप रहेगी तो बीजेपी दिल्ली के मसले पर कुछ नहीं बोलेगी. महंगाई से निपटना किसी के लिए आसान काम नहीं है तो दोनों पार्टी इसपर चुप रहेंगे और संसद में भी दोस्ताना बहस करेंगे... भले ही इसका फायदा कालाबाजारी करने वाले ले जाएं. मंत्री एक और बयान देंगे और अगले दो महीने तक महंगाई के नाम पर लूटने की पूरी आजादी मिल जाएगी क्योंकि सरकार जब खुद ही कहेगी कि महंगाई अगले दो महीनें कम नहीं होगी तो चाहे जिस किमत में सामान बेचो कोई क्या कर लेगा.
मीडिया भी अपनी भूमिका को शायद ही ठीक से निभा पा रही है. सांसद तो मीडिया वालों से भी यह कहने से नहीं चुक रहे हैं कि आप अपने काम से काम रखें. वे तो यहां तक नसीहत देने लगे हैं कि आपका काम है मेरे संदेश को जनता तक पहुंचाने का तो सिर्फ वही करें और सवाल पूछना बंद करें. वैसे सांसद महोदय की बातों का कुछ असर होता भी है और कुछ पत्रकार अपना सवाल पूछना भूल जाते हैं. शायद उन्हें इस बात का डर हो जाता होगा कि अगर संबंध खराब हो गए तो अगली बार खबर कैसे मिलेगी.
ऐसे मौके पर महान कवि गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता याद आ रही है जो कभी अपने हॉस्टल के दिनों में मैंने पढ़ा था... हालांकि यह कविता 1962 के युद्ध के दौरान लिखी गई थी लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी है.
मेरा धन है स्वाधीन कलम
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
दूसरी पार्टी जो विपक्ष में बैठी है उसको इस बात का गुमान है कि सवाल पूछने का हक सिर्फ मेरे पास है. लेकिन मैं अपनी मर्जी से ही कुछ करुंगा. मैं जनता के प्रति जबावदेह नहीं हूं. वैसे जनता मेरा क्या कर लेगी... अगर मैं भ्रष्टाचार के मामले में सत्ता पक्ष का साथ देता हूं तो मुझे भी लाभ मिलेगा.
मेरे विचार से कुछ ऐसा ही खेल खेला जा रहा है संसद में. कांग्रेस कर्नाटक पर चुप रहेगी तो बीजेपी दिल्ली के मसले पर कुछ नहीं बोलेगी. महंगाई से निपटना किसी के लिए आसान काम नहीं है तो दोनों पार्टी इसपर चुप रहेंगे और संसद में भी दोस्ताना बहस करेंगे... भले ही इसका फायदा कालाबाजारी करने वाले ले जाएं. मंत्री एक और बयान देंगे और अगले दो महीने तक महंगाई के नाम पर लूटने की पूरी आजादी मिल जाएगी क्योंकि सरकार जब खुद ही कहेगी कि महंगाई अगले दो महीनें कम नहीं होगी तो चाहे जिस किमत में सामान बेचो कोई क्या कर लेगा.
मीडिया भी अपनी भूमिका को शायद ही ठीक से निभा पा रही है. सांसद तो मीडिया वालों से भी यह कहने से नहीं चुक रहे हैं कि आप अपने काम से काम रखें. वे तो यहां तक नसीहत देने लगे हैं कि आपका काम है मेरे संदेश को जनता तक पहुंचाने का तो सिर्फ वही करें और सवाल पूछना बंद करें. वैसे सांसद महोदय की बातों का कुछ असर होता भी है और कुछ पत्रकार अपना सवाल पूछना भूल जाते हैं. शायद उन्हें इस बात का डर हो जाता होगा कि अगर संबंध खराब हो गए तो अगली बार खबर कैसे मिलेगी.
ऐसे मौके पर महान कवि गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता याद आ रही है जो कभी अपने हॉस्टल के दिनों में मैंने पढ़ा था... हालांकि यह कविता 1962 के युद्ध के दौरान लिखी गई थी लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी है.
मेरा धन है स्वाधीन कलम
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
गुरुवार, जुलाई 14, 2011
मेरा देश भगवान भरोसे और आपका...
राहुल गांधी ने कहा है कि हम हर हमले को नहीं रोक सकते हैं. उधर गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने कहा है कि इस हमले से संबंधित कोई खुफिया जानकारी नहीं भेजी गई थी और ना ही किसी एजेंसी के पास इससे संबंधित कोई जानकारी उपलब्ध थी. कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल ने कहा कि 26/11 के बाद 31 महीनों तक मुंबई में कोई आतंकी घटना नहीं घटी है यह सरकार की उपलब्धि है.
इन बयानों पर सबकी अपनी राय हो सकती है. देश के तीन कद्दावर नेता जो राय जाहिर कर रहे हैं उससे देश की जनता मेरे समझ से गर्व महसूस नहीं करेगी. क्या राहुल अपने बयान से यह जाहिर करना चाहते हैं कि देश के सुरक्षा की जिम्मेदारी मेरी नहीं है, ऐसे हमले होते रहेंगे और हम इसका कुछ नहीं कर सकते?
महाराष्ट्र में कांग्रेस और केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार है तो क्या पी चिदम्बरम अपने बयान से यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि महाराष्ट्र सरकार की कहीं कोई खामी नहीं है और ना ही केंद्र सरकार की कोई कमी है?
...और श्रीप्रकाश जी यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि मुंबई में 31 महीनों तक कोई आतंकी हमला नहीं हुआ तो यह उनकी या उनके सरकार की उपलब्धि है?
अगर सरकार हमें सुरक्षा नहीं दे सकती, देश में भ्रष्टाचार नहीं रोक सकती, महंगाई से निजात नहीं दिला सकती तो फिर क्या कर सकती है? क्या वह सिर्फ निर्दोषों पर लाठीचार्य (जैसा कि बाबा रामदेव एवं उनके समर्थकों पर रामलीला मैदान में हुआ) करने के लिए बैठी है या फिर महंगाई बढ़ाने की पेट्रोल डीजल की बढ़ी कीमतों की सूचना देने के लिए बैठी है?
मेरे विचार से अपने देश में सुरक्षा व्यवस्था सहित तमाम व्यवस्थाएं भगवान भरोसे चल रही है. आपका क्या मानना है?
इन बयानों पर सबकी अपनी राय हो सकती है. देश के तीन कद्दावर नेता जो राय जाहिर कर रहे हैं उससे देश की जनता मेरे समझ से गर्व महसूस नहीं करेगी. क्या राहुल अपने बयान से यह जाहिर करना चाहते हैं कि देश के सुरक्षा की जिम्मेदारी मेरी नहीं है, ऐसे हमले होते रहेंगे और हम इसका कुछ नहीं कर सकते?
महाराष्ट्र में कांग्रेस और केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार है तो क्या पी चिदम्बरम अपने बयान से यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि महाराष्ट्र सरकार की कहीं कोई खामी नहीं है और ना ही केंद्र सरकार की कोई कमी है?
...और श्रीप्रकाश जी यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि मुंबई में 31 महीनों तक कोई आतंकी हमला नहीं हुआ तो यह उनकी या उनके सरकार की उपलब्धि है?
अगर सरकार हमें सुरक्षा नहीं दे सकती, देश में भ्रष्टाचार नहीं रोक सकती, महंगाई से निजात नहीं दिला सकती तो फिर क्या कर सकती है? क्या वह सिर्फ निर्दोषों पर लाठीचार्य (जैसा कि बाबा रामदेव एवं उनके समर्थकों पर रामलीला मैदान में हुआ) करने के लिए बैठी है या फिर महंगाई बढ़ाने की पेट्रोल डीजल की बढ़ी कीमतों की सूचना देने के लिए बैठी है?
मेरे विचार से अपने देश में सुरक्षा व्यवस्था सहित तमाम व्यवस्थाएं भगवान भरोसे चल रही है. आपका क्या मानना है?
गुरुवार, मई 12, 2011
क्या सरकार दलाल की भूमिका निभा रही है?
उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में जमीन अधिग्रहण का खेल जारी है. कभी एक्सप्रेस वे के नाम पर तो कभी सुव्यवस्थित शहर बनाए जाने के नाम पर. मजे की बात तो यह कि अधिग्रहित जमीन को सरकार करीब 10 गुणा ज्यादा दर पर बिल्डरों को बेच रही है.
इससे पहले यूपी की सपा सरकार ने स्पेशल इकोनॉमी जोन के नाम पर कई बड़े उद्योगपतियों को जमींदार बना चुकी है. जिस काम के लिए जमीन लिया गया था अभी तक तो वह काम नहीं हो पाया... लेकिन लगता है बसपा सरकार की सोच इस मसले पर सपा से अलग है. सरकार जमीन एक्सप्रेस वे (यमुना, गंगा जैसे एक्सप्रेस वे) के नाम पर ले रही है. जाहिर सी बात है सड़क के दोनों ओर विकास के काम होंगे और यह काम कोई न कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी ही करेगी.
खैर यह तो सरकार की परेशानी है. फिलहाल किसानों की परेशानी उसे मिलने वाली रकम को लेकर है. प्रशासन अपने कानून को लेकर और किसान अपनी जमीन को लेकर अड़े हुए हैं. इसी बीच नेताओं को अपनी जमीन दिखने लगी है. कई नेताओं को वहां की जमीन पर खेती करने का मौका भी मिल गया है. फसल 2012 में कटेगी जब राज्य में विधानसभा चुनाव होंगे. इसके लिए लगभग सभी राष्ट्रीय या स्थानीय दल जी जान से जुट गए हैं. आप इसे कह सकते हैं कि सभी लोग विकास के काम में लग गए हैं.
इस विकास की दौर में क्या कुछ और बेहतर नहीं हो सकता, मसलन सरकार विकास के नाम पर दलाल की भूमिका निभाना छोड़कर जमीन किसानों की सहमति से ले और उसे उसी दर पर भुगतान करवाए जिस दर पर वह बिल्डरों को दे रही है? पता नहीं यह कितना व्यवहारिक होगा लेकिन मेरे विचार से कुछ ऐसा जरुर होना चाहिए.
इससे पहले यूपी की सपा सरकार ने स्पेशल इकोनॉमी जोन के नाम पर कई बड़े उद्योगपतियों को जमींदार बना चुकी है. जिस काम के लिए जमीन लिया गया था अभी तक तो वह काम नहीं हो पाया... लेकिन लगता है बसपा सरकार की सोच इस मसले पर सपा से अलग है. सरकार जमीन एक्सप्रेस वे (यमुना, गंगा जैसे एक्सप्रेस वे) के नाम पर ले रही है. जाहिर सी बात है सड़क के दोनों ओर विकास के काम होंगे और यह काम कोई न कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी ही करेगी.
खैर यह तो सरकार की परेशानी है. फिलहाल किसानों की परेशानी उसे मिलने वाली रकम को लेकर है. प्रशासन अपने कानून को लेकर और किसान अपनी जमीन को लेकर अड़े हुए हैं. इसी बीच नेताओं को अपनी जमीन दिखने लगी है. कई नेताओं को वहां की जमीन पर खेती करने का मौका भी मिल गया है. फसल 2012 में कटेगी जब राज्य में विधानसभा चुनाव होंगे. इसके लिए लगभग सभी राष्ट्रीय या स्थानीय दल जी जान से जुट गए हैं. आप इसे कह सकते हैं कि सभी लोग विकास के काम में लग गए हैं.
इस विकास की दौर में क्या कुछ और बेहतर नहीं हो सकता, मसलन सरकार विकास के नाम पर दलाल की भूमिका निभाना छोड़कर जमीन किसानों की सहमति से ले और उसे उसी दर पर भुगतान करवाए जिस दर पर वह बिल्डरों को दे रही है? पता नहीं यह कितना व्यवहारिक होगा लेकिन मेरे विचार से कुछ ऐसा जरुर होना चाहिए.
बुधवार, अप्रैल 27, 2011
गुस्से का प्रतीक चप्पल या...
क्या गुस्से के प्रदर्शन के लिए चप्पल या जूता उछाला जाना जायज है? हो सकता है काफी लोग इसके पक्ष में हों लेकिन यह तरीका ठीक नहीं लगता. जूते का हालिया शिकार बने हैं कॉमनवेल्थ गेम्स के सर्वेसर्वा सुरेश कलमाडी. हालांकि कलमाडी ने भी अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत चप्पल उछालकर ही की थी.
गुस्सा कब चप्पल के रुप में तब्दील हो जाए कहना मुश्किल होता है. जॉर्ज डब्ल्यू बुश पर उछला जूता ऐसा उछला कि कई देशों में इसे देखा गया. कई ऑनलाइन गेम बने. यह गेम इतना पॉपुलर हुआ कि लोग अपना फ्रस्टेशन निकालने के लिए इसका उपयोग करने लगे.
जॉर्ज डब्ल्यू बुश पर उछला जूता नीचे गिरा ही था कि अपने देश में भी जूता उछलना शुरू हो गया. पत्रकार जरनैल सिंह के गुस्से का शिकार बने तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम. एक बड़े अखबार के इस पत्रकार को अपनी नौकरी से हाथ धोनी पड़ी. आडवाणी पर भी चप्पल उछले और ...फिर तो सिलसिला ही शुरु हो गया. कई और छोटे बड़े नेता इसका शिकार बने.
वैसे जनरल मुशर्रफ से लेकर चीन के राष्ट्रपति तक इसका शिकार बन चुके हैं. भारत में इसकी शुरूआत कब से हुई कहना थोड़ा मुश्किल होगा. जितनी जानकारी मिल पा रही है उसके अनुसार सुरेश कलमाडी इसके प्रणेता हो सकते हैं. कलमाडी जब 32 वर्ष के थें तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पर चप्पल उछाला था. चप्पल तो मोरारजी भाई की कार से टकराकर रुक गई लेकिन कलमाडी जी का राजनीति करियर परवान चढ़ने लगी. उस समय कई कांग्रेसी नेता ने उनकी तारीफ की थी.
कलमाडी की कोर्ट में पेशी के दौरान जूता उछला और बड़ी खबर बन गई. हो सकता है उनको अपने पुराने दिन याद आ गए हों...
गुस्सा कब चप्पल के रुप में तब्दील हो जाए कहना मुश्किल होता है. जॉर्ज डब्ल्यू बुश पर उछला जूता ऐसा उछला कि कई देशों में इसे देखा गया. कई ऑनलाइन गेम बने. यह गेम इतना पॉपुलर हुआ कि लोग अपना फ्रस्टेशन निकालने के लिए इसका उपयोग करने लगे.
जॉर्ज डब्ल्यू बुश पर उछला जूता नीचे गिरा ही था कि अपने देश में भी जूता उछलना शुरू हो गया. पत्रकार जरनैल सिंह के गुस्से का शिकार बने तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम. एक बड़े अखबार के इस पत्रकार को अपनी नौकरी से हाथ धोनी पड़ी. आडवाणी पर भी चप्पल उछले और ...फिर तो सिलसिला ही शुरु हो गया. कई और छोटे बड़े नेता इसका शिकार बने.
वैसे जनरल मुशर्रफ से लेकर चीन के राष्ट्रपति तक इसका शिकार बन चुके हैं. भारत में इसकी शुरूआत कब से हुई कहना थोड़ा मुश्किल होगा. जितनी जानकारी मिल पा रही है उसके अनुसार सुरेश कलमाडी इसके प्रणेता हो सकते हैं. कलमाडी जब 32 वर्ष के थें तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पर चप्पल उछाला था. चप्पल तो मोरारजी भाई की कार से टकराकर रुक गई लेकिन कलमाडी जी का राजनीति करियर परवान चढ़ने लगी. उस समय कई कांग्रेसी नेता ने उनकी तारीफ की थी.
कलमाडी की कोर्ट में पेशी के दौरान जूता उछला और बड़ी खबर बन गई. हो सकता है उनको अपने पुराने दिन याद आ गए हों...
सोमवार, अप्रैल 18, 2011
कहीं राजनीति में उलझकर न रह जाए अन्ना की मुहिम...
अनशन की समाप्ति के ठीक बाद अन्ना ने अपना प्रेस कांफ्रेंस रखा. पहला विवाद वहीं से शुरू हो गया. ग्रामीण विकास की बात हुई और मीडिया सहित उनके कई समर्थकों को यह लगा कि अन्ना ने मोदी की तारीफ कर दी है. बाद में अन्ना इसपर सफाई देते फिरते रहे.
दूसरा विवाद उठा समिति में शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण को शामिल किए जाने को लेकर. बाबा रामदेव की नाराजगी सबसे ज्यादा रही. इसपर भी अन्ना को सफाई देनी पड़ी. हालांकि बात संभली लेकिन विवाद मीडिया में आ ही गया.
जनलोकपाल बिल को लेकर कपिल सिब्बल के बयान पर भी सफाई देने का काम चलते रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि इस बिल से कुछ नहीं होने वाला है (शिक्षा, चिकित्सा और अन्य समस्याओं के लिए लोग नेता को ही फोन करते हैं, वह समस्या तो इस बिल से हल नहीं होगा...). बाद में अरविन्द केजरीवाल और अन्ना हजारे को यहां तक कहना पड़ा कि अगर उनको इस बिल पर भरोसा नहीं है तो उन्हें समिति से इस्तीफा दे देना चाहिए. इसे आप तीसरा विवाद कह सकते हैं.
चौथा विवाद रहा शांति भूषण और अमर सिंह के बीच हुए तथाकथित बातचीत का टेप जारी होना. यह मसला 2006 का है जैसा कि अमर सिंह बता रहे हैं. अमर सिंह का कहना है कि उन्हें जबरदस्ती इस मामले में घसीटा जा रहा है जबकि शांति भूषण की ओर से यह कहा जा रहा है कि यह टेप ही फर्जी है. अन्ना हजारे को इस पर भी सफाई देना पड़ रहा है.
विवादों के बीच अन्ना के नरम रुख की बात भी हो रही है और मूल जन लोकपाल बिल में आए कई बदलाव की भी. समिति की पहली बैठक होने तक ये सारे विवाद और बदलाव देखने को मिल रहे हैं. अभी तो कई और बैठकें होनी है. कहीं ऐसा न हो कि लोकपाल बिल बनाए जाने तक जन लोकपाल बिल की सारी बातें बदल जाए और जो सरकार चाह रही है वही बिल लोगों के सामने आए... क्योंकि राजनीति और समाज सेवा का कोई सीधा संबंध हमें अभी तक नहीं दिखा. जिस काम से हमारे नेताओं का कोई फायदा न हो, वह उस काम को कभी नहीं करेंगे. आखिर नेता और समाजसेवक में यही तो अंतर होता है.
दूसरा विवाद उठा समिति में शांति भूषण एवं प्रशांत भूषण को शामिल किए जाने को लेकर. बाबा रामदेव की नाराजगी सबसे ज्यादा रही. इसपर भी अन्ना को सफाई देनी पड़ी. हालांकि बात संभली लेकिन विवाद मीडिया में आ ही गया.
जनलोकपाल बिल को लेकर कपिल सिब्बल के बयान पर भी सफाई देने का काम चलते रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि इस बिल से कुछ नहीं होने वाला है (शिक्षा, चिकित्सा और अन्य समस्याओं के लिए लोग नेता को ही फोन करते हैं, वह समस्या तो इस बिल से हल नहीं होगा...). बाद में अरविन्द केजरीवाल और अन्ना हजारे को यहां तक कहना पड़ा कि अगर उनको इस बिल पर भरोसा नहीं है तो उन्हें समिति से इस्तीफा दे देना चाहिए. इसे आप तीसरा विवाद कह सकते हैं.
चौथा विवाद रहा शांति भूषण और अमर सिंह के बीच हुए तथाकथित बातचीत का टेप जारी होना. यह मसला 2006 का है जैसा कि अमर सिंह बता रहे हैं. अमर सिंह का कहना है कि उन्हें जबरदस्ती इस मामले में घसीटा जा रहा है जबकि शांति भूषण की ओर से यह कहा जा रहा है कि यह टेप ही फर्जी है. अन्ना हजारे को इस पर भी सफाई देना पड़ रहा है.
विवादों के बीच अन्ना के नरम रुख की बात भी हो रही है और मूल जन लोकपाल बिल में आए कई बदलाव की भी. समिति की पहली बैठक होने तक ये सारे विवाद और बदलाव देखने को मिल रहे हैं. अभी तो कई और बैठकें होनी है. कहीं ऐसा न हो कि लोकपाल बिल बनाए जाने तक जन लोकपाल बिल की सारी बातें बदल जाए और जो सरकार चाह रही है वही बिल लोगों के सामने आए... क्योंकि राजनीति और समाज सेवा का कोई सीधा संबंध हमें अभी तक नहीं दिखा. जिस काम से हमारे नेताओं का कोई फायदा न हो, वह उस काम को कभी नहीं करेंगे. आखिर नेता और समाजसेवक में यही तो अंतर होता है.
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